Tuesday 9 June 2015

संगठित हिंसा से संघर्शरत पीड़ित का स्व0 व्यथा-कथा

      मेरा नाम फुलचन्द्र द्विवेदी है। मैं ग्राम-हडहा, पोस्ट-गुइयाखुर्द, थाना-बरगड, तहसील-मउ, जिला-चित्रकुट (उ0प्र0) का रहने वाला हूँ।
            हमारी घटना तब की है जब मैं सिर्फ कमाकर अपनी जिन्दगी सुधारना चाहता था। मैं छठी तक पढाई बरगड के सरकारी स्कूल में किया। उसके बाद 17 से 18 साल तक की उम्र में हमने ट्रक में खलासी का काम करने लगा। घर से बाहर तीन से चार महीने तक रह जाता था। इसी तरह पुरे 5 साल तक हमने खलासी का काम किया। उस दौरान हमारा ड्राइवर गाड़ी पर, होटलो में तथा रास्तो में रूक-रूक कर बजारू लडकियों-औरतों के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करता था, उस समय हमें गाड़ी से उतार देता था। हमारी भी इच्छा होती थी, लेकिन बड़ो का सम्मान करता था। 5 साल बाद हम खुद ड्राइवर बन गये, और भी अपने ड्राइवर का देखी-देखा हम भी बजारू लडकियों-औरतों के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने लगे, तब हमारी उम्र-23 से 25 के बीच में थी।
            इस बीच हमें इन्ही सब लड़कियों में एक लड़की पंसद आ गई, जिसका नाम रानी था। मैं उससे शादी करना चाहता था और मैने उससे कहा, वह मान गई। वह जौनपुर की थी, मैने उससे जाति नही पूछा था क्योकि वह बहुत ही सुन्दर थी। मैने उसे अपने घर ले आया और घर वालों से शादी की बात बताई, घर वाले तैयार हो गये, लेकिन शादी से दो दिन पहले ही वह हमारे घर आ गयी। जिस कारण हमारे घर वाले गुस्सा हो गये और शादी के लिये तैयार नही हुए, तब हमने कह दिया कि अब मैं शादी नही करूँगा।
            एक बार मैं भाभी की बच्ची को लेकर, सोनपुरी जिला चिकित्सालय, सोनपुर गया, जिसमे डाक्टर ने बच्ची के ईलाज के दौरान यह बता दिया कि इसे H.I.V है और एक के बाद एक करके भैया, भाभी और उनके बच्चों में भी H.I.V का लक्षण पाया गया।   हमे भी भगंदर था, बहुत दिन तक ईलाज चला, लेकिन ठीक नही हुए, तब डाक्टर ने हमें भी H.I.V बताया। मैं पहले इस मर्ज का नाम भी नही सुना था। डाक्टर ने जब इस बीमारी के बारे में हमे एक कोने में लाकर समझाया और यह भी कहा कि यह एक लाईलाज बीमारी है, इसका कोई ईलाज नही है, तब तो हमारे होश उड़ गये। मन के सारे सपने टूट गये, जिन्दगी से जुड़ी सारी उम्मीद चकना-चुर हो गया। मेरे दिमाग में यही घुम रहा था कि अब मेरी जिन्दगी का क्या होगा। अब हमारे पास कुछ भी नही बचा, इस तरह हमने अपने आप को और अपने करतूत को बहुत कोशा। डाक्टरों ने गाड़ी चलाना मना कर दिया, जिससे कमाने का जरिया चला गया। यह सब जानकर घर वाले बहुत बोले और माँ के बात से हमें बहुत दुःख हुआ। इस बात को लेकर मैं आज तक चिंतित रहता हूँ। हमें इससे भी अधिक दुःख तब हुआ जब हमें फरवरी 2010 में ग्राम प्रधान सत्य नारायण कोल के पास नरेगा में रोजगार माँगने गया, तब उसने हमें ग्रामिणों के बीच यह कह कर भगा दिया कि H.I.V के मरीज काम नही कर सकते है। हमने कहा पानी पिलाने या कोई भी काम में रख लिजिए, लेकिन उसने रखने से साफ इंकार कर दिया और अपने लोगो को रखा। फिर मैने कहा कि हमारा बी0पी0एल0 में नाम है, लेकिन आपने हमें न लाल कार्ड दिया और न ही कलोनी दिया। एक H.I.V पीड़ित को जो सुविधा मिलना चाहिए, उसे भी नही दिया। उसने हमारी बात को अनसुना कर दिया और कभी ध्यान नही दिया। इस घटना से मुझे बहुत दुःख हुआ और मेरा दिल टूट गया। मैं निरास होकर घर आ गया।
            अब हम कोई भी काम नही करते। कभी-कभी गाँव के पास-पड़ोस वालों को थोड़ा खेत लगभग 4 बीघा जोतता हूँ और बटैया कर लेता हूँ। इसके अलावा घर का काम भैया-भाभी के साथ मिलकर करता हूँ। कभी- कभी ऐसा होता है कि गाँव वाले हमसे कतराते है, हमारे साथ हमारे पड़ोसी अच्छा व्यवहार नही करते, ऐसा हमे महसूस होता है। इसलिये मैं कभी शादी-विवाह या किसी भी समारोह में भाग नही लेता हूँ। यही मेरी समस्या है।
            हम अपने उम्र के मित्रों के साथ इस बात की चर्चा करते है, लेकिन आपसे कहने पर कुछ अलग महसूस कर रहा हूँ। ऐसा लग रहा है, मानो आज हमने कुछ खो दिया है और हल्कापन महसूस कर रहा हूँ।

  साक्षात्कारकर्ता- ओंकारा विश्वकर्मा
  संघर्षरत पीड़ित- फूलचन्द्र द्विवेदी          



                        




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